भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो / शाहिद कबीर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:38, 9 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शाहिद कबीर }} {{KKCatGhazal}} <poem> पुकारती है ज...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुकारती है जो तुझ को तिरी सदा ही न हो
न यूँ लपक कि पलटने को हौसला ही न हो

तमाम हर्फ़ ज़रूरी नहीं हों बे-मअ’नी
ये आसमान इधर झुक के टूटता ही न हो

मिले थे यूँ कि जुदा होके ऐसे मिलते हैं
हमारे बीच कभी जैसे कुछ हुआ ही न हो

हर एक शख़्स भटकता है तेरे शहर में यूँ
किसी की जेब में जैसे तिरा पता ही न हो

जो होता जाता है मायूस दिन-ब-दिन तुझ से
ज़रा क़रीब से देख इस को आईना ही न हो

जहाँ को छान के बैठा है इस तरह ‘शाहिद’
तमाम उम्र मैं जैसे कभी चला ही न हो