भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है / मीना कुमारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:42, 1 सितम्बर 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है
रात ख़ैरात की, सदक़े की सहर होती है
 
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है, न अब आस्तीं तर होती है
 
जैसे जागी हुई आँखों में, चुभें काँच के ख़्वाब
रात इस तरह, दीवानों की बसर होती है
 
ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूँढता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है
 
एक मर्कज़ की तलाश, एक भटकती ख़ुशबू
कभी मंज़िल, कभी तम्हीदे-सफ़र होती है

दिल से अनमोल नगीने को छुपायें तो कहाँ
बारिशे-संग यहाँ आठ पहर होती है

काम आते हैं न आ सकते हैं बे-जाँ अल्फ़ाज़
तर्जमा दर्द की ख़ामोश नज़र होती है.