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प्रतीक्षा / अदनान कफ़ील दरवेश

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आज
जबकि मैं तुमसे
कविता में सम्वाद कर रहा हूँ
तो मेरी प्रतीक्षा में
समुद्र की नीलिमा
और गहराती जा रही है

और गहराता जा रहा है
गुलाब का चटख लाल रंग
रात की सियाही को
और गहराता देख रहा हूँ।

मेरी भाषा के सबसे भयावह शब्द
एक घुसपैठिए की तरह
उतरना चाहते हैं मेरी कविता में
आज मैं उनसे दूर भागना चाहता हूँ।

दूर बहुत दूर
जहाँ वो मेरा पीछा न करते हों
मैं इस कविता को बचा ले जाना चाहता हूँ
ठीक वैसे ही
जैसे बचाता आया हूँ तुम्हारा प्रेम
जीवन के हर कठिन मरुस्थल में भी
प्रिय !

मैं अपने आप को बचाते-बचाते
अब बहुत थक गया हूँ
मेरी ये थकी प्रतीक्षा
मेरे प्रेम की आखिरी भेंट है
इसे स्वीकार करो

और अन्तिम आलिंगन
और आख़िरी चुम्बन के साथ
मुझे उस मैदान में ले चलो
और लिटा दो
जहाँ सफ़ेद घास अब और नरम हो गई है
और जहाँ बकरियाँ घास टूँग रही हैं...।

(रचनाकाल: 2016)