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बरखा की रात / महेन्द्र भटनागर

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दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन !

धरा ऐसी कि जिसने नव
सितारों से जड़ित साड़ी उतारी है,
सिहर कर गौर-वर्णी स्वस्थ
बाहें गोद में आने पसारी हैं,
समायी जा रही बनकर
सुहागिन, मुग्ध मन है और बेसुध तन !

कि लहरों के उठे शीतल
उरोजों पर अजाना मन मचलता है,
चतुर्दिक घुल रहा उन्माद
छवि पर छा रही निश्छल सरलता है,
खिँचे जाते हृदय के तार
अगणित स्वर्ग-सम अविराम आकर्षण !

बुझाने छटपटाती प्यास
युग-युग की, हुआ अनमोल यह संगम,
जलद नभ से विरह-ज्वाला
बुझाने को सघन होकर झरे झमझम,
निरन्तर बह रहा है स्रोत
जीवन का, उमड़ता आज है यौवन !