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बस्तर का कुई विद्रोह’1859 / संजय अलंग

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बस्तर में वन रक्षा के लिए हुआ था- कुई विद्रोह
मिली संज्ञा इसे, विद्रोह की ही
कथित सभ्यता के लिए बना मील का पत्थर
प्रेरणा पाई ऊँचे सभ्य लोगों ने, इससे
अब बदले तरीके,विधि बदली और अन्दर तक घुसे
अब नहीं करते हरिदास-भगवानदास जैसी क्रूर ठेकेदारी
सभ्य रहो,मज़दूरी दो,विकास दिखाओ
पैसा फेंको,तमाशा देखो
अभी तो पूरा वन,पूरा खनिज,पूरे आदिवासी श्रमिक पड़े है-खोदने को,दोहन को
 
भेजी,कोतापल्ली,फोतकेल के आदिवासी रोकते नहीं
अब साल वृक्ष को कटने से
रोका तो सेना सामने आई ही थी
हुआ था, कुई विद्रोह
अब खनिज को क्यों रोकेंगें?
अब तो बड़ी सुसज्जित सेना है साथ

खनिज महत्वपूर्ण है कि, आदिवासी
महँगे से महँगा खनिज है वो तो
देवता क्यों माने आदमी पहाड़ और वन को
उसे उपकरण की तरह तो शासक ही करता है उपयोग
तुम क्यो?

लाभ खनिज से, खनन आदिवासी से
विरोधी जुग्गा,जुम्मा,राजू,दोरा,पामभोई सब तो खो गए
हैं तो उद्योगपति,मंत्री,सरकार और बन्दूकें
इनका घालमेल ही सब कुछ कराएगा
प्रत्येक बार की नई पोटली में भी
यह तंत्र ही आएगा
सरकार तो सदा वही, जो सभ्य इच्छा को कानून कह इठलाएगी
जिसमें नहीं होगा कुईयों का नारा-
एक साल,एक सिर

सभ्य आदमी ही सब ओर आएगा-जाएगा
कोई प्रतिरोध तो विद्रोह ही कहलाएगा और
पुस्तक में ही रह जाएगा
वन हो, खनिज हो, जन हो
उसका दोहन पूर्ण हो जाएगा
एक और धरती, एक और समुदाय
मुख्य धारा में, मिल जाएगा