भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बारिश में बुद्ध / सिद्धेश्वर सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:32, 10 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिद्धेश्वर सिंह |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिमशिखरों से कुछ नीचे
और उर्वर सतह से थोड़ा ऊपर
अकेले विराज रहे हैं बुद्ध ।

उधर दूसरी पहाड़ी ढलान पर
दूर दिखाई दे रहा है गोंपा
किन्तु उतना दूर नहीं
कि जितनी दूर से आ रही है बारिश
अपनी पूरी आहट और आवाज़ के साथ ।
जहाँ से
जिस लोक से आ रही है बारिश
वहाँ भी तो अक्सर आते जाते होंगे बुद्ध
परखते होंगे प्रकृति का रसायन
या मनुष्य देहों की आँच से निर्मित
इन्द्रधनुष में
खोजते होंगे अपने मन का रंग ।

कमरे की खिड़की से
दिखाई दे रहे हैं आर्द्र होते बुद्ध
उनके पार्श्व से बह रही है करुणा की विरल धार ।
मैं गिनता हूँ उँगलियों पर बीतते जाते दिन
आती हुई रातें
और सपना होता एक संसार ।

यहाँ भी हैं वहीं बुद्ध
जिन्हें देखा था सारनाथ-काशी में
या चौखाम-तेजू-इम्फ़ाल में।
वही बुद्ध
जिन्हें छुटपन से देखता आया हूँ
इतिहास की वज़नी क़िताबों में
कविता में
सिनेमा के पर्दे पर
संग्रहालयों के गलियारे में
सजावटी सामान की दुकानों पर
पर उन्हें देखने से बचता रह स्वयं के भीतर
हर जगह -- हर बार।

यह चन्द्रभागा है
नदी के नाम का एक होटल आरामदेह
केलंग की आबादी से तनिक विलग एक और केलंग
जैसे देह से विलग कोई दूसरी देह
काठ और कंक्रीट का एक किलानुमा निर्माण
कुछ दिन का मेरा अपना अस्थाई आवास
फिर प्रयाण
फिर प्रस्थान
फिर निष्क्रमण
जग के बारे में भी
ऐसा ही कहते पाए जाते हैं मुखर गुणीजन
और इस प्रक्रिया में बार-बार उद्धृत किए जाते हैं बुद्ध।

बुद्ध बहुत मूल्यवान हैं हमारे लिए
उनके होने से होता है सब कुछ
उनके होने से कुछ भी नहीं रह जाता है सब कुछ ।
टटोलता हूँ अपना समान
काले रंग की छतरी बैग में है अब भी विद्यमान
चलूँ तान दूँ उनके शीश पर
बारिश में भीग रहे हैं बुद्ध
और उनके पार्श्व से बह रही है करुणा की विरल धार
मैं इसी संसार में हूँ
और सपना होता जा रहा है संसार ।