भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भिखारी रोॅ जिनगी / नवीन ठाकुर ‘संधि’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:11, 27 मई 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक भिखारी माँगै छीं भीख,
गाँव- गाँव घरेॅ-घोॅर चारो दिश।

कोय डाँटै धमकाय छै,
कोय लूलूवाय छूछूवाय छै।
कोय एक मुट्ठी अनाज दै छै उठाय,
कोय दै छै खाड़ोॅ भगाय।
लोर पीवी केॅ करै छी रीस,
एक भिखारी माँगै छीं भीख।

हे भगवान! की देल्हेॅ हमरा करनी रोॅ फल,
हाथ गोड़ ठुठोॅ हरी लेल्हेॅ हमरोॅ बल।
लोर पोछतें- पोछतें नै फूटै छै बोल,
‘‘संधि’’ केॅ दुःख ईश्वर दहोॅ ओकरोॅ दुःखबंधन केॅ खोल।
ई दुक्खोॅ सें बढ़िया छै खैबोॅ बिख,
एक भिखारी माँगै छीं भीख।