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मसर्रतों के फ़साने का इक़्तिताम हुआ / जावेद क़मर

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मसर्रतों के फसाने का इख़्तिताम हुआ।
हमारा दर्द ज़माने में अब तो आम हुआ।

ये क़िस्सा आज भी आँसू बयान करते हैं।
ग़म-ए-हयात का क़िस्सा कहाँ तमाम हुआ।

न जीते जी मिली दुनिया में उस को कुछ इज़्ज़त।
कि बाद मरने के दुनिया में उस का नाम हुआ।

तुम्हारा रक़्स भी जाइज़ है बर सर-ए-मेहफ़िल।
हमारा बैठ के पीना भी अब हराम हुआ।

धङकता है मेरे सीने में ये तुम्हारे लिए।
जो दिल था मेरा वह कब का तुम्हारे नाम हुआ।

था इन्तेज़ार तुम्हारा हरेक आहट पर।
न तुम ही लौट के आए न वक़्त ए शाम हुआ।

जहाँ जहाँ पर क़दम मेरे यार ने रक्खे।
वहीं वहीं पर बहारों का एहतिमाम हुआ।

ज़बान खुल न सकी उन के रू ब रू ऐ 'क़मर' ।
नज़र नज़र में सर-ए-अंजुमन कलाम हुआ।