भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महकती फ़ज़ा का गुमाँ बन गया मैं / डी.एम.मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:15, 5 जुलाई 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महकती फ़ज़ा का गुमाँ बन गया मैं।
कभी गुल था अब गुलिस्ताँ बन गया मैं।

बहुत बार टूटा मगर मैं न हारा,
बिखर कर उड़ा कहकशाँ बन गया मैं।

उसी ने रुलाया , उसी ने सताया,
उसी का मगर मेहरबाँ बन गया मैं।

तेरे प्यार ने मेरी दुनिया बदल दी,
मोहब्बत की इक दास्ताँ बन गया मैं।

मेरी मुफ़लिसी ही मेरा इम्तहाँ है,
मिली जब न छत आसमाँ बन गया मैं।

ग़ज़ल मेरी ताक़त, ग़ज़ल ही जुनूँ है,
जो गूँगे थे उनकी जुबाँ बन गया मैं।