भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह समय है आँख के शोले बुझाने का / विनय कुमार
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:41, 25 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनय कुमार |संग्रह=क़र्जे़ तहज़ीब एक दुनिया है / विनय क...)
यह समय है आँख के शोले बुझाने का।
यह समय है वनस्पतियों के नहाने का।
तक्षकों के हाथ में ही यज्ञ सारे हैं
यह समय जनमेजयों के हार जाने का।
तुम घिरे हो प्यार के निश्चिंत पानी में
यह समय है होष के दीपक सिराने का।
मित्रता के वृक्ष पर फल पक गए होंगे
यह समय है साख की षाखें हिलाने का।
वक़्त की बंदिष नहीं है तानसेनों पर
कुल समय है राग दरबारी सुनाने का।
अब नहीं तो कब फटेंगे षोर के बादल
यह समय है धूप की धुन गुनगुनाने का।
फिर समय के होठ पर मझधार के किस्से
फिर समय है तटस्थों के तिलमिलाने का।
गीत गाने का समय फिर लौट आएगा
यह समय है शब्द को पत्थर बनाने का।