भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये मशवरे बहम उठे हैं चारा-जू करते / अज़ीज़ लखनवी

Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:14, 26 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये मशवरे बहम<ref>साथ</ref> उठे हैं चारा-जु करते
अब इस मरीज़ को अच्छा था क़िबलरु करते

कफ़न को बाँधे हुए सर से आए हैं वरना
हम और आप से इस तरह गुफ़्तगू करते

जवाब हज़रत-ए-नासेह<ref>नसहीत करने वाला</ref> को हम भी कुछ देते
जो गुफ़्तगू के तरीक़े से गुफ़्तगू करते

पहुँच के हश्र के मैदान में हौल क्यों है 'अज़ीज़'
अभी तो पहली ही मंज़िल है जूस्तजू<ref>इच्छा</ref> करते

शब्दार्थ
<references/>