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वनस्पति / जय गोस्वामी / उत्पल बैनर्जी

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ज़ंजीर बन्धे हर घण्टे में
दमघोंटू हर नाव तले
तुमने छुपा लिए हैं अपने हाथ

वह गतिमान वनस्पति
जो छूती थी सैकत और पल्लव
स्वनिर्मित पात्र की आभा
घोंघे और यहाँ तक कि जलप्रपात का कुछ अंश भी
उँगली से खींच लाती थी — अब, बोलो
कौन हमें लाकर देगा पाताल से चुम्बक ?
रेत में गड्ढे खोदकर कौन लाएगा कछुए के अण्डे
और तमाम काइयों को मिलाकर
पकाएगा हरे केकड़ों का माँस ?

हमें कौन सिखाएगा कम्पमान नेत्रपल्लव, श्यामल पत्रावली
और गगनचुम्बी चूल्हा ? जिस चूल्हे के भीतर है वह गोल गेन्द —
धारीदार, धधकता घूमता हुआ ।

उस गेन्द का घूर्णन देखते-देखते
हमने देह से उतार कर ज़मीन पर बिछा दिया था अपना चमड़ा;
धीरे-धीरे उसमें गड्ढा करके रहने लगे थे मैदानी चूहे,
केंचुए, वज्रकीट और तमाम तरह के साँप
और कभी-कभी तो दो-एक मनुष्य भी ।

नहीं, नहीं, ठीक मनुष्य नहीं, मनुष्य के कुछ टुकड़े
उन्होंने हमारे चमड़े पर आग जलाकर ठण्ड भगाई थी
भूनकर खाई थी साँप की पूँछ
मरे कौए की अँतड़ियाँ
और अपने हाथों की उँगलियाँ भी ।

वाह ! क्या स्वाद है — कहते-कहते ही
उनके हाथों की उँगलियाँ ख़त्म हो गई थीं
और वे अपेक्षाकृत छोटी
पैरों की उँगलियों की ओर
झाँकने लगे थे ।

इसके बाद उन्होंने क्रमश पसन्द किया था
लिंग, पैरों के अण्डे और यकृत ।

नतीजतन, इसके कुछ दिनों बाद ही
हमारे चमड़े के मैदान पर से हाहाकार करते
जीभविहीन कुछ सिर लुढ़कते-लुढ़कते चले गए
जिनका मुँह खुला था,
आख़िरकार एक दिन समुद्र को खाने
वे लुढ़क-लुढ़क कर समुद्र के भीतर चले गए —

कहना न होगा, इसके बहुत पहले ही ख़त्म हो गए थे
मैदानी चूहे और तितलियों के वंश ।
आज हमारे चमड़े पर मुँह फाड़े देख रहे हैं
घावों से भरे बड़े-बड़े चेहरे —
अब उन घावों में कौन भरेगा त्रुटिहीन भोर
और अविस्मरणीय रूई !

अब कहाँ हैं उस रूई के नरम और लम्बे रोंएँ ?
कहाँ हैं, उस पर्वमाला के शिखर से नोचकर लाए गए
बर्फ़-ढँके शृंग ?
पुरानी खाड़ी में क्यों पछाड़ खाता गिर रहा है नमक घुला जल ?
तुमने अभी कहाँ रखे हैं अपने हाथ ?
जिसने अभी सरकना शुरु किया उस ग्लेशियर के नीचे ?

उफ़ कितनी सफ़ेद है उसकी चीख़ !
क्यों इतनी सूखी है तुम्हारे हाथों की काई ?
तुम्हारी देह की रेत क्यों नहीं भीग रही है ?

और किस तरह, कितनी तरह से कहूँ मैं ?
इस बार, हमारे चमड़े पर कुआँ खोद रहा था
लोगों का एक झुण्ड
साल भर खोदने के बाद
पानी के बदले उन्हें मिली फनफनाती ख़ून की धार!
कारण कि त्वचा के नीचे इतने दिनों में
कई पेशियाँ और धमनियाँ बनने लगी थीं !

फनफनाकर उठ आए उस ख़ून को
पल भर में आसमान ने सोख लिया था
फिर शून्य के साथ उसकी घनिष्ट प्रतिक्रिया से
तैयार हुई थी विचित्र छोटे-छोटे कीड़ों की श्रेणी;

आसमान की बाहरी सतह पर
वे घेरा बनाकर इन्तज़ार कर रहे हैं;
अगर कभी तुम्हारा हाथ छिप जाए मरे हुए घण्टे के नीचे
अगर वह सचल वनस्पति दमघोंटू नाव में शरण ले
तो फिर वे लगाएँगे छलाँग... वह देखो
असँख्य छोटे-छोटे कीड़ों के झड़ने की शुरुआत हो चुकी है
हवा को सोखते वे नीचे उतर रहे हैं...

इसके बाद धीरे-धीरे थम गई लहरें;
धीरे-धीरे सब समा गए समुद्र में,
ग्लेशियर आगे बढ़ आए,
पहाड़ के सिर से छलककर गिरने लगा लाल-काला ख़ून,
फिर एक दिन लाल-काले तरल का विराट स्तर
दसों दिशाओं में उभर आया

और उसके बहुत गहरे तल में पड़ा रहा
एक मरा हुए घण्टा
एक नाव की डेक
एक ठण्डी, सोई हुई वनस्पति ।

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी