भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वापसी / कुमार विकल

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:28, 3 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार विकल |संग्रह= एक छोटी-सी लड़ाई / कुमार विकल }} मैं अ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं अपने मुहल्ले को वापस जाऊँगा

राजपथ की चकाचौंध से दूर—

ऊँघती बस्ती में.


पुराने घर के बंद कमरों में

नई ढिबरी जलाऊँगा

पुरानी किताबों को झाड़कर सजाऊँगा

दीवार पर नया कैलेंडर लगाऊँगा

और धीरे—धीरे

धनिया धोबिन

लच्छू लोहार

कानु किरानी

और चतुरी चमार की दुनिया में डूब जाऊँगा.


रा्जपथ की वनतंत्री व्यवस्था में

मैं अकेला और अरक्षित हूँ

मेरे स्नायुतंत्र पर भय और आतंक की कँटीली

झाड़ियाँ उग आई हैं

जिन्हें काटने के लिए सख़्त हाथों के साथ—साथ

खुरदरे शब्दों की ज़रूरत है.


इन झाड़ियों को काटने के लिए

ठीक हाथों और ठीक शब्दों की तलाश में

मैं होरी किसान और मोची राम के पास जाऊँगा.

मैं अपने मुहल्ले को वापस जाऊँगा.


राजपथ की तिलिस्मी दुनिया में

मैं अकेला और अरक्षित हूँ

मेरे राजपंथी दोस्त जो हाथों में संबंधों की मशालें

लिए फिरते थे

अपने—अपने वर्गों के अँधेरे में खो गए गए हैं

और सुरक्षित हो गए हैं

हर आदमी का वर्ग उसकी सुरक्षा का घेरा है

मैं भी अपने घेरे में लौट जाऊँगा.

और अब—

जब कभी राजपथ पर आऊँगा

अकेला नहीं

पूरे मुहल्ले के साथ आऊँगा.