भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शृंगार है हिन्दी / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खुसरो के हृदय का उदगार है हिन्दी ।

कबीर के दोहों का संसार है हिन्दी ।।

मीरा के मन की पीर बनकर गूँजती घर-घर ।

सूर के सागर- सा विस्तार है हिन्दी ।।

जन-जन के मानस में, बस गई जो गहरे तक ।

तुलसी के 'मानस' का विस्तार है हिन्दी ।।

दादू और रैदास ने गाया है झूमकर ।

छू गई है मन के सभी तार है हिन्दी ।।

'सत्यार्थप्रकाश' बन अँधेरा मिटा दिया ।

टंकारा के दयानन्द की टंकार है हिन्दी ।।

गाँधी की वाणी बन भारत जगा दिया ।

आज़ादी के गीतों की ललकार है हिन्दी ।।

'कामायनी' का 'उर्वशी’ का रूप है इसमें ।

'आँसू' की करुण, सहज जलधार है हिन्दी ।।

प्रसाद ने हिमाद्रि से ऊँचा उठा दिया।

निराला की वीणा वादिनी झंकार है हिन्दी।।

पीड़ित की पीर घुलकर यह 'गोदान' बन गई ।

भारत का है गौरव, शृंगार है हिन्दी ।।

'मधुशाला' की मधुरता है इसमें घुली हुई ।

दिनकर की द्वापर* में हुंकार है हिन्दी ।।

भारत को समझना है तो जानिए इसको ।

दुनिया भर में पा रही विस्तार है हिन्दी ।।

सबके दिलों को जोड़ने का काम कर रही ।

देश का स्वाभिमान है, आधार है हिन्दी ।।
(*द्वापर युग को केन्द्र में रखकर लिखे दो काव्य-कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी से दिनकर जी की विशिष्ट पहचान बनी। 'परशुराम की प्रतीक्षा' में परशुराम को भी प्रतीकात्मक रूप में लिया ।]