Last modified on 19 अगस्त 2014, at 11:04

सर्दी का गीत / रमेश रंजक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 19 अगस्त 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुझको तो भाते हैं जाड़ों के दिन ।
गर्मी में जैसे पहाड़ों के दिन ।।

कहीं बैठ लो धूप लगती नहीं
यह धरती बिचारी सुलगती नहीं
बदन को सुहाती है ठण्डी हवा
मिले जैसे पानी को मीठी दवा

यही मूँगफलियों, सिँघाड़ों के दिन ।
                       जाड़ों के दिन ।
गर्मी में जैसे पहाड़ों के दिन ।।

मिली धूप की रोशनी काम को
थकन को मिली रात आराम को
यही तो हैं सेहत बनाने के दिन
मदरसों में पढ़ने-पढ़ाने के दिन

सही मायनों में अखाड़ों के दिन ।
                      जाड़ों के दिन ।
गर्मी में जैसे पहाड़ों के दिन ।।