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सावन / राकेश खंडेलवाल
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चाहतें दिल में अपने हजारों पलीं,कोरी चाह्त से पर कुछ भी होता नहीं
स्वप्न आतुर हैं सैधें लगाये मगर, नैन के गाँच में कोई सोता नहीं
चैत बैसाख, फागुन सभी द्वार पर आके खुद ही बसेरा बनाते रहे
सैंकड़ों मैंने भेजे निमन्त्रण मगर, एक सावन ही आके भिगोता नही