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हरिगीता / अध्याय १२ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

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अर्जुन ने कहा:
अव्यक्त को भजते कि जो धरते तुम्हारा ध्यान हैं।
इन योगियों में योगवेत्ता कौन श्रेष्ठ महान हैं॥१॥

श्रीभगवान् ने कहा:
कहता उन्हें मैं श्रेष्ठ मुझमें चित्त जो धरते सदा।
जो युक्त हो श्रद्धा-सहित मेरा भजन करते सदा॥२॥

अव्यक्त, अक्षर, अनिर्देश्य, अचिन्त्य नित्य स्वरूप को।
भजते अचल, कूटस्थ, उत्तम सर्वव्यापी रूप को॥३॥

सब इन्द्रियाँ साधे सदा समबुद्धि ही धरते हुए।
पाते मुझे वे पार्थ प्राणी मात्र हित करते हुए॥४॥

अव्यक्त में आसक्त जो होता उन्हें अति क्लेश है।
पाता पुरुष यह गति, सहन करके विपत्ति विशेष है॥५॥

हो मत्परायण कर्म सब अर्पण मुझे करते हुए।
भजते सदैव अनन्य मन से ध्यान जो धरते हुए॥६॥

मुझमें लगाते चित्त उनका शीघ्र कर उद्धार मैं।
इस मृत्युमय संसार से बेड़ा लगाता पार मैं॥७॥

मुझमें लगाले मन, मुझी में बुद्धि को रख सब कहीं।
मुझमें मिलेगा फिर तभी इसमें कभी संशय नहीं॥८॥

मुझमें धनंजय! जो न ठीक प्रकार मन पाओ बसा।
अभ्यास-योग प्रयत्न से मेरी लगालो लालसा॥९॥

अभ्यास भी होता नहीं तो कर्म कर मेरे लिये।
सब सिद्धि होगी कर्म भी मेरे लिये अर्जुन! किये॥१०॥

यह भी न हो तब आसरा मेरा लिये कर योग ही।
कर चित्त-संयम कर्मफल के त्याग सारे भोग ही॥११॥

अभ्यास पथ से ज्ञान उत्तम ज्ञान से गुरु ध्यान है।
गुरु ध्यान से फलत्याग करता त्याग शान्ति प्रदान है॥१२॥

बिन द्वेष सारे प्राणियों का मित्र करुणावान्‌ हो।
सम दुःखसुख में मद न ममता क्षमाशील महान्‌ हो॥१३॥

जो तुष्ट नित मन बुद्धि से मुझमें हुआ आसक्त है।
दृढ़ निश्चयी है संयमी प्यारा मुझे वह भक्त है॥१४॥

पाते न जिससे क्लेश जन उनसे न पाता आप ही।
भय क्रोध हर्ष विषाद बिन प्यारा मुझे है जन वही॥१५॥

जो शुचि उदासी दक्ष है जिसको न दुख बाधा रही।
इच्छा रहित आरम्भ त्यागी भक्त प्रिय मुझको वही॥१६॥

करता न द्वेष न हर्ष जो बिन शोक है बिन कामना।
त्यागे शुभाशुभ फल वही है भक्त प्रिय मुझको घना॥१७॥

सम शत्रु मित्रों से सदा अपमान मान समान है।
शीतोष्ण सुख-दुख सम जिसे आसक्ति बिन मतिमान है॥१८॥

निन्दा प्रशंसा सम जिसे मौनी सदा संतुष्ट ही।
अनिकेत निश्चल बुद्धिमय प्रिय भक्त है मुखको वही॥१९॥

जो मत्परायण इस सुधामय धर्म में अनुरक्त हैं।
वे नित्य श्रद्धावान जन मेरे परम प्रिय भक्त हैं॥२०॥


बारहवां अध्याय समाप्त हुआ॥१२॥