भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरिगीता / अध्याय १५ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:08, 22 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दीनानाथ भार्गव 'दिनेश' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

श्री भगवान बोले:

है मूल ऊपर, शाख नीचे, पत्र जिनके वेद हैं॥
वे वेदवित् जो जानते अश्वत्थ-अव्यय भेद हैं॥१॥

पल्लव विषय, गुण से पली अध-ऊर्ध्व शाखा छा रहीं॥
नर-लोक में नीचे जड़ें, कर्मानुबन्धी जा रहीं॥२॥

उसका यहाँ मिलता स्वरूप, न आदि मध्याधार से॥
दृढ़मूल यह अश्वत्थ काट असंग शस्त्र-प्रहार से॥३॥

फिर वह निकालो ढूँढ़कर, पद श्रेष्ठ ठीक प्रकार से॥
कर प्राप्त जिसको फिर न लौटे, छूटकर संसार से॥३॥

मैं शरण उसकी हूँ, पुरुष जो आदि और महान है॥
उत्पन्न जिससे सब पुरातन, यह प्रवृत्ति-विधान है॥४॥

जीता जिन्हों ने संग-दोष, न मोह जिनमें मान है॥
मन में सदा जिनके जगा अध्यात्म-ज्ञान प्रधान है॥४॥

जिनमें न कोई कामना, सुख-दुःख और न द्वन्द्व ही॥
अव्यय परमपद को सदा, ज्ञानी पुरुष पाते वही॥५॥

जिसमें न सूर्य प्रकाश, चन्द्र न आग ही का काम है॥
लौटे न जन जिसमें पहुँच, मेरा वही परधाम है॥६॥

इस लोक में मेरा सनातन अंश है यह जीव ही॥
मन के सहित छः प्रकृतिवासी खींचता इन्द्रिय वही॥७॥

जब जीव लेता देह, अथवा त्यागता सम्बन्ध को॥
करता ग्रहण इनको सुमन से वायु जैसे गन्ध को॥८॥

रसना, त्वचा, दृग, कान, एवं नाक मन-आश्रय लिये॥
यह जीव सब सेवन किया करता विषय निर्मित किये॥९॥

जाते हुए तन त्याग, रहते, भोगते गुणयुक्त भी॥
जानें न इसको मूढ़ मानव, जानते ज्ञानी सभी ॥१०॥

कर यत्न योगी आपमें इसको बसा पहिचानते॥
पर यत्न करके भी न मूढ़, अशुद्ध आत्मा जानते॥११॥

जिससे प्रकाशित है जगत् , जो तेज दिव्य दिनेश में॥
वह तेज मेरा तेज है, जो अग्नि में राकेश में॥१२॥

क्षिति में बसा निज तेज से, मैं प्राणियों को धर रहा॥
रस रूप होकर सोम, सारी पुष्ट औषधि कर रहा॥१३॥

मैं प्राणियों में बस रहा, हो रूप वैश्वानर महा॥
पाचन चतुर्विध अन्न, प्राणापान-युत होकर रहा॥१४॥

सुधि ज्ञान और अपोह मुझसे, मैं सभी में बस रहा॥
वेदान्तकर्ता वेदवेद्य सुवेदवित् मुझको कहा॥१५॥

इस लोक में क्षर और अक्षर, दो पुरुष हैं सर्वदा॥
क्षर सर्व भूतों को कहा, कूटस्थ है अक्षर सदा॥१६॥

कहते जिसे परमात्मा, उत्तम पुरुष इनसे परे॥
त्रैलोक्य में रह ईश अव्यय, सर्व जग पोषण करे॥१७॥

क्षर और अक्षर से परे, मैं श्रेष्ठ हूँ संसार में॥
इस हेतु पुरुषोत्तम कहाया वेद लोकाचार में॥१८॥

तज मोह पुरुषोत्तम मुझे, जो पार्थ, लेता जान है॥
सब भाँति वह सर्वज्ञ हो, भजता मुझे मतिमान् है॥१९॥

मैंने कहा यह गुप्त से भी गुप्त ज्ञान महान् है॥
यह जानकर करता सदा जीवन सफल मतिमान् है॥२०॥


पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥१५॥