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मृत्युर्धावति पंचमः / अज्ञेय

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क्या डर ही
बसा हुआ है सब में-
डर ही से भागता है
पाँचवाँ सवार?
और उन डरे हुओं के डर से
भाग रहे हैं सब
मानते हुए अपने को अशरण,
बे-सहार :
क्या कोई नहीं है द्वार
इस भय के पार?
इससे क्या नहीं है निस्तार?
या कि वह भय ही है
एक द्वार
उस तक जो
सब को दौड़ाता है
निर्विकार?