भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे सामने / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:21, 30 अप्रैल 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर नया प्रतिबिंब ढलता है तुम्हारे सामने
हर नया विश्वास पलता है तुम्हारे सामने
फुसफुसाते इन सभी पागल प्रतीकों से कहो
ये समय की खाद को अब तो लगें पहचानने

ताल देने में न, सिजदों में न है इनका जवाब
राज इनकी लगजिशों का भी तुम्हारे सामने
फूल के सहजात काँटे भी पले मधुवात में
जी न पाते क्यों बहारो! ये तुम्हारे सामने

खून है इनकी रगों में भी टहनियों का उन्हीं
है इन्हें भी तो रचा-पोसा इसी उद्यान ने
जो सुला दे हर हकीकत की सदा को, दर्द को
वे न आने दे किसी का गम तुम्हारे सामने

और हम सदके तुम्हारे पारदर्शी सत्र के
हो रहे कितने सधे अभिनय तुम्हारे सामने
वर्तिकाएँ सब बुझी जातीं इधर नेपथ्य में
दीप मणियों के उधर जलते तुम्हारे सामने

सब सुबह गूँगे जनमते और शामें बेनिगाह
पर उगलते स्वर भरे जलवे तुम्हारे सामने
डाल-टूटी आस्थाओं ने जिन्हें दे दी उड़ान
रह गईं थम कर हवाएँ वे तुम्हारे सामने