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यात्राएँ / शैलेय

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अब हम यात्राएँ नहीं किया करते
अब हम दुनिया तय किया करते हैं
फिर चाहे अपने ही पड़ोस भर से
दुनिया जहान तक जहाँ भी कोई काम पड़ जाए

जी हाँ,
अब काम ही निकालता है हमें बाहर
वरना तो यों हम
घर में भी ख़ुद को कहाँ महफ़ूज़ पाते हैं

सच कहूँ तो
‘कब तक लौट कर आओगे’ या
‘टाइम से घर लौट आना’ सुनने में या
‘जाम-वाम के कारण ही सही
थोड़ देर लग सकती है’ कहने में
कितना तो घर वाले और
कितना तो मेरा ही दिल
न चाहते हुए भी
एकबारगी को धक्क हो जाता है

क्या पता रस्ते में कहाँ पर क्या हो जाए
चाकू चल जाए कि
आग लग जाए कि
यकायक कोई बम ही फूट बैठे और
देखते ही देखते
हम सैकड़ों-हज़ारों वहीं जमींदोज़ हो जाएँ

कुछ न भी हो तो भी
कोई आपकी सुन्दरता पर मुग्ध भाव यकायक मुस्करा उठे
या कोई अपने ही किसी तनाव
अपनी ही कोई हारी-बीमारी की उलझन में
आपसे हल्का-सा सहारे की माँग कर उठे
आपकी रीढ़ थरथरा उठती है और
एक घटाटोप में
आप अपने ही भीतर
किसी चीथड़े-सा जाने कितनी दूर छिटक चुके होते हैं
उस आदमी से भी कहीं अधिक
तीखे दर्द से कराहते हुए
या कुछ नहीं भी तो
रीढ़ सूँघ गई उस मुस्कान के अर्थ बिसूरते हुए

वैसे भी यदि दरअसल
दूरियाँ किसी तरह तय हो भी जाएँ
यात्राएँ ठीक-ठीक तय कर पाना सचमुच बड़ा मुश्किल
एकदम तलवार की धार पार करना है

अब आप ही सोचिए
यदि आप में क़ायदे का ज़रा भी वज़न है
तो ऐसी आड़ी खड़ी तीखी तलवार पार करना
वह भी बिना किसी चोट-चुभने के
अजी कैसी बात करते हो
हँसी-मज़ाक हर जगह नहीं चलती
वैसे भी ‘आ बैल, मुझे मार’
किसी मूख ने भी ऐसा कभी शायद ही कहा हो

हाँ, यह और बात है कि
लूट-हत्या-बलात्कार कोई भी ज़ख़्म
हमें नियति या नसीब ही लग जाए

तो ख़ुद पर
एक करुणार्द्र अफ़सोस के सिवाय और हो भी क्या सकता है
कि अब ज़िन्दगी बचाने को
जिन्दगी लगाने के सिवाय कुछ नहीं है।