भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हें अभी मालूम नहीं / परितोष कुमार 'पीयूष'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:51, 24 नवम्बर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़े शातिर होते हैं वे लोग
जो हमेशा ही प्रेम भरी
चिकनी-चुपड़ी बातें करते
आवश्यकता से अधिक ख्याल रखते
तमाम औपचारिकताओं के पुल बाँधते

ठीक वैसे ही
जैसे हमारे देश के नेता
बात-बात पर लोकतंत्र
और जनता के हितों की बातें करते हैं

तुम्हें अभी मालूम नहीं!

हाँ तुम्हें अभी मालूम नहीं
यह सब भ्रम है तुम्हारा
कि वे लोग प्रेम करते है
तुम्हारे अंतःवस्त्रों की
एक झलक पाने को बेकरार
उनकी वहशी आँखों में
अपनी आँखे डालकर
क्या कभी देखा है तुमने
कभी सोचा है तुमने
आखिर प्रेम के पक्ष में
उनके क्या मायने हैं

गर हो सके तो
प्रवेश कर देखना कभी
स्वयं को
उनकी नाचती तिलिस्मी आँखो में

वे लोग सिर्फ
एक अवसर की तलाश में होते हैं
माकूल वक्त मिलते ही
तुम्हें खींच लायेंगे अपने बिस्तर तक
जबरन क्षत विक्षत कर देंगे
तुम्हारी आत्मा तक को

जैसे अवसर मिलते ही
हत्या कर दी जाती रही है
यहाँ लोकतंत्र की

तुम अबतक बेखबर हो!

हाँ तुम अबतक बेखबर हो
वक्त की विद्रुपताओं से
अपने समय के यथार्थ से
तुम्हें अभी मालूम नहीं
हम कैसे दमघोटू वक्त में
यहाँ जिये जा रहें हैं
जहाँ प्रेम, रिश्ते, संवेदानाएँ, धर्म
और सरकार
सबकुछ तय करता है
हमारा बाज़ार