भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुशहाली के फूल नहीं खिलते पटना गाँव में / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:15, 13 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीकान्त मुकुल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चिलचिलाती धूप में किसी युवती के
उड़ते दुपट्टे की तरह लगता है वह गाँव
समीप जाने पर मुट्ठी भर घरों का जमावड़ा
वह पटना है, जहाँ नहीं है किसी नदी का किनारा
न गोलघर, न गांधी मैदान, न राजभवन
ट्रैफिक जाम, चेहरे की थकान भी नहीं मिलती वहाँ सूरजमुखी के खेतों वाले रास्ते की मोड़ से
फूटती हैं गलियाँ, जो पहुँचाती हैं लोगों के दुआर पर घरों के पिछवाड़े में मिल जाते हैं रब्बन मियाँ
अपनी चरती छेरों के साथ
चुनाव-चर्चा कि राष्ट्रवादी नारों से विलग
उनका राष्ट्रवाद पसरा है उनके खेत की डड़ार तक

देश के आठ लाख गांवों में से एक पटना में
अब तक नहीं खिला खुशहाली का फूल
जबकि उसके मीता राजधानी पटना कि सड़कों पर रोज सजते हैं सपनों के इंद्रधनुष
कहते हैं एक साधु के शाप से अभिशप्त हैं गाँव पटना जिसे यहाँ किसी से नहीं मिला उसे दाना-पानी
अब तो, "कल बाबा" की अंधविश्वासों की कीचड़ में फंसे हुए हैं उसके पांव

इस गाँव के बच्चे अब तक नहीं बने कोई अफसर, मंत्री गायक, खिलाड़ी, पत्रकार, कवि
किसी विधायक की यहाँ ससुराल नहीं
न तो किसी सांसद का साढू आना

दिन के उजाले में आकाश में तारे गिनता
रात के अंधेरे में भोंकर पार रोता है पटना
अपने नाम, अपने हैत हालात पर
जिसकी आंसुओं की धार से सींचते हैं खेत
जहाँ कौर भर ही अन्न उपजा पाते हैं पटना के वासी।