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अभिनंदन सै बार बसंत / सुधीर सक्सेना 'सुधि'

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खड़ा हुआ कब से एकाकी
अब तो आओ द्वार बसंत!

लगा हुआ है खिलते फूलों
का मेला नन्ही बगिया में,
मैंने वासंती सपनों को-
सजा लिया अपनी डलिया में।
आओगे तब तुमको दूँगा
फूलों का उपहार बसंत।

हवा शाम की डाक दे गई,
उसमें मिली तुम्हारी चिट्ठी।
जिसमें तुमने लिखी हुई हैं,
मनमोहक बातें खट-मिट्ठी।
मेरा भी पीले कागज पर
अंकित तुमको प्यार बसंत!

लौट चलीं सूरज की किरणें
कल आने का वादा देकर,
तुम भी सुबह-सुबह आ जाना
मधुमय स्वर वासंती लेकर।
आहट पा, चहकेगी बुलबुल,
अभिनंदन सौ बार बसंत!