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विदेशी बहुएँ / कुमार विक्रम

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विदेशी बहुओं के विषय में
मैं अपना कोई भी मत
तैयार नहीं कर पाया अब तक
क्योंकि मर्द-देश में
बहुएँ शायद विदेशी ही होती हैं
और वो भी सार्क देशों
अथवा अफ्रीका के किसी देश से आई हुई
या फिर फिलिस्तीन अथवा अफ़ग़ानिस्तान से
क्योंकि अमेरिका यूरोप ऑस्ट्रेलिया इज़राईल आदि
देशों से आये विदेशियों को तो
हम बहू नहीं दामाद बनाते हैं
सर-आँखों पर बिठाते हैं
दौड़-दौड़ कर
उनकी सारी फरमाइशें पूरी करते हैं
सारे ऊँच नीच का ख्याल रखते हैं
आश्चर्य नहीं गर बहुओं के देश में
जाने की मारा-मारी नहीं होती
वहाँ के बीमार की तबियत
पूछने की बीमारी नहीं होती
वह कोई दामाद का देश नहीं
जहाँ की सर्दी-जुक़ाम भी
हम तक बड़ी दुर्घटना की तरह पहुँचती है
जैसे अमेरिकी स्कूल में
एक बच्चे का गोली लगने से घायल होना
फिलिस्तीन में हज़ारों बच्चों का
बमबारी में मरने से बड़ी घटना होती है
 
बहुओं के देश के सारे स्त्री और मर्द
निरीह और सुसंस्कृत औरत की तरह होते हैं
वैसे ही जैसे गरीब देश के गरीब और अमीर
दोनों ही एक विकट ग़ुरबत से बंधे हुए होते हैं
और शायद इसीलिए
गरीब देश का अमीर भी
अमीर देश के गरीब से
इज़्ज़त से पेश आता है
ठीक उसी तरह
जैसे दामादों के घर के
छोटे बच्चों से भी
स्त्री-प्रदेश के के बड़े
कुछ संभल कर ही बातें करते हैं
जैसे वो रिश्तेदार कम
दूर देश से आये दूत हों
अत्यधिक मिलनसार और मृदुभाषी
मानो किसी निर्बल देश का राजदूत
अमीर देशों के साथ मंत्रणा कर रहा हो
अपने देश की भलाई
वाकपटुता से सुनिश्चित कर रहा हो
 
ऐसा नहीं कि बहुओं के देश में जाने की रवायत नहीं
दामादों से कुछ अधिक पिस जाने पर
खुद के पुरुषार्थ पर शक़ होने लगे
तो अपने शौर्य, अहंकार और वैभव के लिए
स्त्री-प्रदेशों में जाना
पारसमणि की तरह काम करता है
तो जब किसी बड़े देश के राष्ट्रनेता को
अपने से छोटे और निर्बल किसी देश में
अपने देश की लम्बी-चौड़ी बखान करते हुए पाओ
आवभगत और सोने चांदी के उपहार से लबरेज़ पाओ
तो बस यही समझ लेना
कोई मर्द-देश से सताया हुया
बस अपनी मर्दानगी के बारे में आश्वस्त हो रहा है
और दामादों के नाज-नखरे उठाने की बस तैयारी रहा है.
 
‘पब्लिक एजेंडा’, 2014