भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई / सहबा अख़्तर
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:53, 29 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सहबा अख़्तर |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> अस...' के साथ नया पन्ना बनाया)
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
दुनिया मुझे भी आबिद-ए-दुनिया बना गई
वो संग-ए-दिल मज़ार-ए-वफ़ा पर ब-नाम-ए-इश्क़
आई तो मेरे नाम का पत्थर लगा ई
मेरे लिए हज़ार तबस्सुम थी वो बहार
जो आँसुओं की राह पे मुझ को लगा गई
गौहर-फ़रोश शबनमी पलकों की छाँव में
क्या आग थी जो रूह के अंदर समा गई
मेरे सुख़न की दाद भी उस को ही दीजिए
वो जिस की आरज़ू मुझे शाएर बना गई
‘सहबा’ वो रौशनी जो बहुत मेहरबान थी
क्यूँ मेरे रास्ते में अंधेरे बिछा गई