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कितनी आश्वस्ति थी तुम्हारे होने ही से बुद्ध / अशोक कुमार पाण्डेय

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कुशीनगर में एक विशाल बुद्ध माल बन रहा है जिसे मैत्रेयी परियोजना का नाम दिया गया है. उसके लिए चार सौ गाँवों की ज़मीन का अधिग्रहण हो रहा है जिसके खिलाफ किसान लाम पर हैं। यह कविता उनकी ही ओर से... - कवि

दुखों की कब कमी रही इस कुशीनारा में
अविराम यात्राओं से थककर जब रुके तुम यहाँ
दुखों से हारकर ही तो नहीं सो गये चिरनिद्रा में?
कितना कम होता है एक जीवन दुख की दूरी नापने के लिये
और बस सरसों के पीलेपन जितनी होती है सुख की उम्र...

आख़िरी नहीं थी दुःख से मुक्ति के लिए तुम्हारी भटकन
हज़ार वर्षों से भटकते रहे हम देश-देशान्तरों में
कोसती रहीं कितनी ही यशोधरायें कलकतिया रेल को
पटरियाँ निहार-निहार गलते रहे हमारे शुद्धोधन

उस विशाल अर्द्धगोलीय मंदिर में लेटे हुए तुम
हमारे इतिहास से वर्तमान तक फैले हुए आक्षितिज
देखते रहे यह सब अपने अर्धमीलित नेत्रों से
और आते-जाते रहे कितने ही मौसम…

गेरुआ काशेय में लिपटे तुम्हारे सुकोमल शिष्य
अबूझ भाषाओं में लिखे तुम्हारे स्तुति गान
कितने दूर थे ये सब हमसे और फिर भी कितने समीप
उस मंदिर के चतुर्दिक फैली हरियाली में शामिल था हमारा रंग
उन भिक्षुओं के पैरों में लिपटी धूल में गंध थी हमारी
घूमते धर्मचक्रों और घंटों में हमारी भी आवाज़ गूंजती थी
और हमारे घरों की मद्धम रौशनियों में घुला हुआ था तुम्हारे अस्तित्व का उजाला

हमारे लिये तो बस तुम्हारा होना ही आश्वस्ति थी एक…

कब सोचा था कि एक दिन तुम्हारे कदमों से चलकर आयेगा दुःख
एक दिन तुम्हारे नाम पर ही नाप लिए जायेंगे ढाई कदमों से हमारे तीनों काल
यह कौन सी मैत्रेयी है बुद्ध जिसे सुख के लिये सारा संसार चाहिये?
और वे कौन से परिव्राजक तुम्हारी स्मृति के लिए चाहिए जिन्हें इतनी भव्यता?

तुम तो छोड़ आये थे न राज प्रासाद
फिर...
कौन है ये जो तुम्हें फिर से क़ैद कर देना चाहते है?
कौन हैं जो चाहते हैं चार सौ गाँवों की जागीर तुम्हारे लिए
यह कैसा स्मारक है बहुजन हिताय का जिसके कंगूरों पर खड़े इतराते हैं अभिजन?

कहो न बुद्ध
हमारा तो दुःख का रिश्ता था तुमसे
जो तुम ही जोड़ गए थे एक दिन
फिर कौन हैं ये लोग जिनसे सुख का रिश्ता है तुम्हारा?

कहाँ चले जाएँ हम दुखों की अपनी रामगठरिया लिए
किसके द्वारे फैलाएं अपनी झोली इस अंधे-बहरे समय में
जब किसी आर्त पुकार में नहीं दरवाजों के उस पार तक की यात्रा की शक्ति
कौन सा ज्ञान दिलाएगा हमें इस वंचना से मुक्ति
आसान नहीं अपने ही द्वारों के द्वारपाल हो जाने भर का संतोष
कहाँ से लाये वह असीम धैर्य जिसके नशे में डूब जाता है दर्द का एहसास
वह दृष्टि कि निर्विकार देख सकें सरसों के पौधों पर उगते पत्थरों के जंगल
निर्वासन का अर्थ निर्वाण तो नहीं होता न हर बार
और ऐसे में तो कोई स्वप्न भी अधम्म होगा न बुद्ध

कहो न बुद्ध दुःख ही क्यों हो सदा हमारे हिस्से में?
बामियान हो कि कुशीनगर हम ही क्यों हों बेदखल हर बार?
मुक्ति के तुम्हारे मन्त्र लिए हम ही क्यों हों हविष्य हर यज्ञ के ?

कहो न बुद्ध
क्या करें हम उस अट्टालिका में गूंजते
‘बुद्धं शरणम गच्छामि’ के आह्वान का