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‘अस्ल मुहब्बत : भाग 5’ / जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'

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एक सफ़र के दौरान पहली मरतबा!
जब मैं और तुम मिले थे, तब तुम,
अपने 'वालिद साहेब' के साथ,
स्टेशन तक आयी थी!
और मैं अपने दस-ग्यारह,
दोस्तों के साथ !!!!!

'तुम्हें मालूम है कि तुम कितनी मायूस थी
उस वक़्त, कितनी अकेली-अकेली थी !!!'

मैं बातों - बातों मैं तुम्हारे पापा को,
पसंद आ रहा था और तुम,
मुझे बार - बार देख कर, फूल की
पंखुड़ियों-सी खुलना चाह रही थी!

लेकिन,जब तक तुम कुछ कह पाती
ट्रेन, प्लेटफार्म पर आ चुकी थी,,,!

और,
हम मुहब्बत के इस सफ़र में
'हमसफर' थे, शायद !!

सर्दियों की उस रात में तुमने ,,
कईं दफ़ा मुझे इस तरह से देखा

"जैसे, मेरी निगाहों की तपिश में, तुम,
अपनी नर्म-हथेलियाँ सेकना चाहती हो"

और फिर तुम बेसुध ही सो गयी
और मैं र‍ातभर यूँ ही जागता रहा!

जब सवेरे हम गंतव्य पर पहुँचे।
तब तुम कली सी खिल रही थी,
तब तुम मुझे देख मुस्कुरा रहीथी
तब तुम उदास नही थी!
!हां बिल्कुल भी नहीं!

तब तुमने इकरार किया कि ये सफ़र
जिंदगी का बेहतरीन सफ़र था !!!!!!!

और हम 'बेहतरीन' हमसफर भी !

तुम्हारी निगेहबानी में शामिल,
मेरे अहसासों के दरमियान,

तुम्हारे दिल के दरवाजे पर,
दस्तक देता मेर‍ा दिल !!!!!!
तुम्हें अपना चुका था!!!!!


तुम इकरार भी करना नहीं चाहती थी,
और इन्कार भी करना नही चाहती थी!

कि,
तुम्हें पहली नज़र में ही,
मुझसे मुहब्बत थी!

नादान बड़ी नासमझ निकली तुम,
हा! यही 'अस्ल मुहब्बत' थी !!!!