भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पधारो म्हारे देस.. / राजीव रंजन प्रसाद

Kavita Kosh से
Rajeevnhpc102 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:22, 13 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>'''केसरिया ब…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

केसरिया बालमवा..
पधारो म्हारे देस...

आदम ढूंढो, आदिम पाओ
रक्त पिपासु, प्यास बुझाओ
मेरी माँगें, तेरी माँगे
खींचे इसकी उसकी टाँगे
मेरा परिचय, मेरी जाती
छलनी कर दो दूजी छाती
नेताजी का ले कर नारा
गुंडागर्दी धर्म हमारा
हमें रोकने की जुर्ररत में
खिंचवाने क्या केस
पधारो म्हारे देस..

किसका ज्यादा चौडा सीना
मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा
दोनों मिल कर आग लगायें
रेलें रोकें बस सुलगायें
कितना अपना भाईचारा
मिलकर हमने बाग उजाडा
बीन जला दो, धुन यह किसकी
भैंस उसी की लाठी जिसकी
मरे बिचारे आम दिहाडी
गोली के आदेस
पधारो म्हारे देस..

ईंट ईंट कर घर बनवाओ
जा कर उसमें आग लगाओ
और अगर एसा कर पाओ
हिम्मत वालों देश जलाओ
अपनी पीडा ही पीडा है
भीतर यह कैसा कीडा है
अपनी भी देखो परछाई
निश्चित डर जाओगे भाई
बारूदों में रेत बदल दी
इसी काज के क्लेस
पधारो म्हारे देस...

जाग जाग शैतान जाग रे
आग आग हर ओर आग रे
जला देश परिवेश नाच रे
झूम झूम आल्हे को बाँच रे
इंसानों की मौत हो गयी
सोच सोच की सौत हो गयी
होली रक्त चिता दीवाली
गुलशन में उल्लू हर डाली
हँसी सुनों, हैं सभी भेडिये
इंसानों के भेस
पधारो म्हारे देस...

केसरिया बालमवा.........!!!

4.06.2007