भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देखते देखते ही साल गुज़र जाता है / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर

Kavita Kosh से
Jangveer Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:36, 15 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरेन्द्र सिंह काफ़िर |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखते देखते ही साल गुज़र जाता है
पर तिरा ग़म है कि बढ़ता है ठहर जाता है

तैरती रहती है आँखों में तू हर शब ऐसे
जैसे दरिया में कोई चाँद उतर जाता है

कौन उस ख़्वाब की ता'बीर पे करता है यक़ीं
ख़्वाब जो नींद से लड़ता हुआ मर जाता है

हम ने आँखों की ज़बानों पे लगाए हैं क़ुफ़्ल
वर्ना दिल तेरी ही आवाज़ों से भर जाता है

फिर से दुनिया की तरफ़ ध्यान लगाया है मगर
ख़ाक इतने में तिरा दिल से असर जाता है