भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने घुटने से कहा / धूमिल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:54, 23 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल |संग्रह =सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र / धू...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने उसकी वरज़िश करते हुए कहा - प्यारे घुटने

तुम्हें सत्तर वर्ष चलना था

और तुम अभी स चोट खा गए

जबकि अभी '70 है । तुम्हें

भाषा के दलिद्दर से उबरना तुम्हें और

सारी कौम का सपना बनना था

 

कविता में कितना जहर है और कितना देश

अपनी गरीबी की मार का मुँह तोड़ने के लिए

एक शब्द कितना कारगर होता है ।

तुम्हें यह सवाल तय करना था ।

 

अपनी भूख और बेकारी और नींद को

साहस की चौकी पर रख दो

और देखो कि दीवार पर उसका

क्या असर होता है ।

 

गुस्से का रंग नीला या जोगिया

गुस्से का रंग बैंगनी या लाल

गुस्से का एक रंग ठीक उस तरह जैसे ख़ुसरो गुस्सा

            या गुस्सा कंगाल