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पि‍ता / रश्मि शर्मा

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लोरि‍यों में कभी नहीं होते पि‍ता
पि‍ता होते हैं
आधी रात को नींद में डूबे बच्‍चों के
सर पर मीठीथपकि‍यों में

कौर-कौर भोजन में
नहीं होता पि‍‍‍‍ता के हाथों का स्‍वाद
पि‍ता जुटे होते हैं
थाली के व्‍यंजनों की जुगाड़ में

पि‍ता कि‍स्‍से नहीं सुनाते
मगर ताड़ लेते हैं
कि‍स ओर चल पड़े हमारे कदम
रोक देते हैं रास्‍ता चट्टान की तरह

पि‍ता होते हैं मेघ गर्जन जैसे
लगते हैं तानाशाह
दरअसल होते हैं वटवृक्ष
बाजुओं में समेटे पूरा परि‍वार

जीवन में आने वाली कठि‍नाइयों को
साफ करते हैं पि‍ता
सारी नादानि‍यों को माफ़ करते
आसमान बन जाते हैं पि‍ता

जीवन भर छद्म आवरण ओढ़े
नारि‍यल से कठोर होते हैं पि‍ता
एक बूँद आँसू भी
कभी नहीं देख पाता कोई

मगर बेटी की वि‍दाई के वक्‍त
उसे बाहों में भर
कतरा-कतरा पि‍‍‍‍घल जाते हैं पि‍ता
फूट-फूट कर रोते हुए
आँखों से समंदर बहा देते हैं पि‍‍‍‍ता