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धुंध डूबी खोह / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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रात का पहरा लगा हो जिस तरह आकाश में
हैं बँधी वैसी हदें दिन के प्रगल्भ प्रकाश में

खून उतरेगा न आँखों में सितारों की कभी
बँध गए है इस तरह वे चाँदनी के पाश में

ज़िंदगी बेथाह सपनों की रंगीली पांत थीं
धुंध-डूबी खोह जैसी धँस गई संत्रास में

लग रही थी जो उदधि की रत्न-लहरों की बनी
है वही अब तो समाई स्तब्धता के ग्रास में

इस तरह खामोश दोहराते तुम्हें कब तक रहें
तुम ठहरते हो न जब पल भर किसी विश्वास में

वेग मुझमें या भले ही शैल-तटिनी का मगर
घूँट बन कर छन गया निर्मम समय की प्यास में

गूँजते ही रह गए ताउम्र जिस झंकार में
आज मुरझाने लगी वह रागिनी उपहास में

डूब मेरे ही अतल में जाय मेरी आत्मजा
जी सकेगी कब तलक अभिव्यक्ति के उपवास में

पर फ़रिश्तों और परियों को दिये, अच्छा किया
पंख क्यों कतरे विहगों के भरे मधुमास में!