भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या बात थी कि जो भी सुना अन-सुना हुआ / राज नारायन 'राज़'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:41, 14 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज नारायन 'राज़' |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या बात थी कि जो भी सुना अन-सुना हुआ
दिल के नगर में शोर था कैसा मचा हुआ

तुम छुप गए थे जिस्म की दीवार से परे
इक शख़्स फिर रहा था तुम्हें ढूँढता हुआ

इक साया कल मिला था तिरे घर के आस-पास
हैरान खोया खोया सा कुछ सोचता हुआ

शायद हवा-ए-ताजा कभी आए इस तरफ
रक्खा है मैं ने घर का दरीचा खुला हुआ

भटका हुआ ख़याल हूँ वादी में ज़ेहन की
अल्फ़ाज के नगर का पता पूछता हुआ

चाहा था मैं ने जब भी हदों का फलांगना
देखा था आगे आगे उफ़ुक दौड़ता हुआ

छिटकी हुई थी चाँदनी यादों की शब को ‘राज़’
आँगन मिरे ख़याल का था चौंकता हुआ