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खाली जगह / अनिल मिश्र

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इस सृष्टि में कोई खाली जगह नहीं है
जिसे हम खाली समझते हैं
वहाँ अनजान देशों के संघर्षों के
उड़-उड़ कर आए असंख्य धूल-कण हैं
एक दूसरे को आवेशित करती विधुत-तरंगे हैं
वहाँ मूच्र्छित पड़ा है प्रेम
किसी मौसम में फिर हरा हो जाने के लिए

अपने प्रादुर्भाव के समय से
शांत-स्थिर पड़े विशाल पत्थर की
अखंड उदासी से
निकल आने की कशमकश है
वहाँ है चींटी के चलने की आवाज
और दूब के तिनके का हवा में हिलना है

अपनी पहली सन्तान होने पर
बरगद के पेड़ में धागे बाँधते समय
माँगी गयी तुम्हारी मेरी मनौतियां हैं
बेहद ऊमस भरी रात में
पस्त पड़े हौसलों को
अपनी बाहों का सहारा देकर उठाती
सुबह के सूरज की किरनें हैं
इसके अलावा वहाँ सच्चे-झूठे किस्से हैं
जिनके सहारे जीते आ रहे हैं हम

वहाँ गरज रहे हैं बादल
अपने कंधे पर बैठाए सदियों के आक्रोश
भविष्य में वहाँ अँधेरे और प्रकाश की
बनी पगडंडी पर
चला जा रहा है रूठा मनु
एक श्रद्धा सी लगने वाली स्त्री
पोटली में रखे बीजों को
छितरा रही है दशों दिशाओं में

इतिहास के अस्पताल के बाहर
एक सनकी शल्य-चिकित्सक ने
सजा रखी है
महान राजाओं और समाज-सुधारकों की
खोपड़ियों के अर्ध-सत्य की प्रदर्शनी
बहुत सी टूटी हुई उम्मीदे हैं
लेकिन उससे भी ज्यादा हैं बांसुरी के स्वर