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गन्ध की सम्भावना में / सरोज मिश्र

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द्वार चन्दन का बना है, सीढ़ियों पर नाग बैठे!
गन्ध की सम्भावना में, व्यर्थ है कुंडी बजाना!

ज़िन्दगी फीकी लगी तो आ गये बेहतर बनाने!
बेंच कर अपनी जड़ें परदेस में क़िस्मत कमाने!
पत्थरों का था नगर आबोहवा प्रतिकूल निकली,
इसलिए अब तक रखे हैं हाँथ पर सरसों के दाने!

नीम के जंगल उगे हैं, बोल मीठे दो अछूते!
कौन गायेगा सुनेगा, प्यार में डूबा तराना!
गन्ध की सम्भावना में, व्यर्थ है कुंडी बजाना!

कागजी घाटों पर बैठी प्यास पानी पढ़ रही है!
रेत की दीवार पर भोली जवानी चढ़ रही है!
जन्म लेते ही नियति से बैर जिसका हो गया था,
अब अभागी वह हथेली नीतियों से लड रही है!

आदतें मझधार की विपरीत हैं पतवार से पर,
धार को तो चाहिए था साथ दोनों का निभाना!
गन्ध की सम्भावना में, व्यर्थ है कुंडी बजाना!

है वहीअट्टालिका तरु-मालिका है अश्रु निर्झर!
श्यामवर्णी देह बिखरे, केश चुभते धूप नश्तर!
है वही पथ और उस पर कर्म रत वह नायिका भी,
बुदबुदा कहती निराला-तोड़ती अब तक हूँ पत्थर!

देवता से दानवों तक हों किसी भी ओर चाहें,
बाद मंथन के हमें बस लौट खाली हाँथ जाना!
गन्ध की सम्भावना में, व्यर्थ है कुंडी बजाना!