भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोर सुहानी / राजेन्द्र स्वर्णकार

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:35, 14 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र स्वर्णकार |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> प्राची …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्राची में केशर ढुलके,
पूरे भूमंडल पर छा जाए !
आलोकित नव दिनकर
जगती का तिमिर-तुमुल झुलसा जाए !
आकंठ आनंदित दसों दिशाएँ,
सुख समृद्धि चहुँ ओर हो !
यह भोर सुहानी भोर हो !!

संदेश सहस्रों आशाओं के
आगत क्षण क्षण ले आएं !
अवसाद मिटें , भ्रम-जाल कटें ,
मिल जाएं बिछोही ; मुसकाएं !
विश्वास वृष्टि में आर्द्र-सजल,
आह्लादित हर दृग-कोर हो !
यह भोर सुहानी भोर हो !!

अवनी के कण कण , जल में ,
पवन में अमृत-जीवन सरसाए !
निज कर्म-लीन तल्लीन हो'
हर प्राणी झूमे नाचे गाए !
ना कोई व्यथित, मन मन प्रमुदित हो,
निकट निकट हर छोर हो !
यह भोर सुहानी भोर हो !!