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खौफ खाया कबूतरी धुआँ / परिचय दास

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पिछली रात को मैंने नींद से जागकर अचानक सोचा
जिसकी प्रज्ञा के आलोक से आलोकित होता मन का गहन अंधकार
वहाँ मुग्ध मनुष्य देखता होगा प्रतिदिन
पानी में न डूबने वाली आत्मा की गति को
अकेले रास्ते में आत्ममुग्ध प्रतिक्रियाहीन चलते हुए अब
इस जन्म के प्रत्याहार के लिए
कोई उसे सपनों का एक क्षण बना सकता
आँखों में बिंबित था उदित सूर्य
बह रही थी नदी, लहराती हुई, अपनी धुन में मग्न
कुछ दिनों के बाद फूल निकल आते हैं पत्तों की ओट में, बहार अनेक
स्वप्न मनुष्य की पकड़ से फिसल जाते हैं वैसे ही
खौफ खाए कबूतरी-धुएँ को दर्पण अमें बदलने
की व्यर्थ कोशिश कर रहे हैं
विश्वास अब छुरी की नोक पर से निथरता है
पर्दा हटा दूँ, खोल दूँ वातायन, प्रवेश करे सरसराती हवा
भाटों की विरुदावली सुन इस लोक को ही भुला बैठा अल्पतोषी मैं
जेल के द्वार को यदि हो जाए प्रज्ञा, मुक्त हो निर्दोष
बंदी हो जाएँ अपराधी
मैं सौरमंडल खोजता अपना, अंतरिक्ष में भटकता शब्द,
सुर ढूँढता अपना
फिर वापस लौटने के लिए तड़पता भी हूँ
और न लौट सकने की सत्यता जानकर
नए स्वादों के साथ आनंद भी लेता हूँ
मैं मर रहे व्यक्ति के चेहरे पर उकरी जिंदगी की
आखिरी इच्छा हूँ
खोए हुए जंगल के हॄदय-पिण्ड से निकला हुआ स्वर
मुँह उठा कर देखाता हूँ, मेरी ओर अँगली दिखाकर जादूगर
हाँक रहे हैं :
वह देखिए मनुष्य, वह देखिए भूत !
उस रात को मेरे सपनों में ग्रीष्म की आँधियों ने
पेड़ की टहनियों से पत्तों को तोड़कर धराशाही कर दिया ।