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अभी मिटे भी नहीं, पीठ पर से निशान कल के / विजय किशोर मानव
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अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।
माथे मिले
लकीरों वाले
हाथ चोट खाए
क्या तक़दीर
लिखी है मालिक
हम तो भर पाए;
खुली हवा में उड़ें
कहाँ ऐसे नसीब अपने
गुम चाभी के ताले हैं
बाहर की सांकल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।
ढोते पेट
छिल गए कन्धे
भूख कि दूब हरी,
भीड़ों में
लगती है अपनी
देह पाल भरी;
सूरज रहे किसी का
हमको क्या लेना-देना
आँख खुली जब से
हम हैं दड़बे में काजल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।