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समय का नया चेहरा / राजर्षि अरुण

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कँपाती ठंड में ठंडी हवा कँपा जाती है जैसे
ओस सँभालती पत्तों को कँपा रही हैं स्थितियाँ
प्लेटो, अरस्तू और सुकरात के शब्दों को भी वैसे ही
अर्थ अस्तित्व खोते जा रहे हैं
पत्र-पतित ओस-कणों की तरह ।

सभ्यता का विकास
समय को एक नया चेहरा देता है
ऐसा इतिहास-शिक्षक कहते थे
और ऐसा कहते हुए
मोटे चश्मे के भीतर उनकी आँखें
पसीज जाती थीं

मुझे याद है अच्छी तरह
जब यह बात मैंने अपनी माँ को बताई थी
उसका दमा और भी बढ़ गया था ।

मेरा डर पुरातन है
पर है स्थायी
अर्थ की केंचुली उतारकर शब्द
कृत्रिम नवीनता ओढ़
रेंग रहे हैं इधर-उधर

जब भी टकराते हैं मुझसे
मेरी कविता की ओट में
सभ्यता और समय को
गालियाँ बकते रहते हैं ।