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गाय / राकेश रंजन

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जब भी कोई उत्सव होता
बाबा उसे सजाते थे
कभी-कभी तो उसे पूजते
औ' आरती दिखाते थे

अक्सर वह अपने खूँटे से
बँधकर, डरकर रहती थी
जाने क्या-क्या दुख सहती थी
नहीं कभी कुछ कहती थी

ग़म खाकर भी रह लेती थी
आँसू पी भी जी लेती
अगर कलेजा फटता उसका
चुपके-छुपके सी लेती

आज मगर कर्तव्यमूढ़-से
बाबा ने बेबस उसको
सौंप दिया कम्पित हाथों से
एक अजाने मानुस को

चली गई वह देह सिकोड़े
मुँह लटकाए रोती-सी
संझा के बोझल पलछिन में
दृग से ओझल होती-सी

कहाँ गई वह चिर दुखियारी
बस्ती या वीराने में
हरे-भरे-से चरागाह में
या फिर बूचड़खाने में