भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक कर्मचारी की डायरी-1 / रणविजय सिंह सत्‍यकेतु

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:50, 6 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणविजय सिंह सत्‍यकेतु |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> मेरे …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे गिर्द घूमती
बनती रहती हैं कहानियाँ
मेरे चाल-चलन
मेरी कथनी-करनी का हर लम्हा
बन जाता है कहानी

मेरी चुप्पी भी
जिसे करीबी, ख़ून के लोग
घुन्नापन, घमंड, अभिमान
और जाने किन-किन विशेषणों से
आभूषित करते हैं

उन्हें इस बात का दुःख है
कि नहीं मानता मैं उनका मशविरा यथावत
नहीं सुनता उन्हें शब्दशः
नहीं रहता उनके कहे में जस का तस
अपना काम मुसलसल करना
कुछ ही नहीं सबसे ताल्लुक रखना
उन्हें नागवार गुजरता है

काँटे की तरह चुभती हैं उनकी आँखों में
मेरी संवेदनाएँ
हिकारत जगाता है उनके दिमाग में
मेरा सर्वसमभाव
उनके लिए हूँ पथभ्रष्ट
कुलांगार और म्लेच्छ
नहीं पसंद उन्हें मेरा साम्यवाद

वे रोज गढ़ते हैं मेरे खि़लाफ किस्से
हर क़दम पर रोपते हैं खोट
इसलिए, मेरे गिर्द घूमती
बनती रहती हैं कहानियाँ
मेरे चाल-चलन
मेरी कथनी-करनी का हर लम्हा
बन जाता है कहानी ।