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एक वैश्विक गंवार के सपने / कुमार विक्रम

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गाँव के मध्य में अवस्थित
हे बरगद के वृक्ष!
रहना तुम यूँ हीं खड़े पत्थर की भाँती
ताकि मैं जब लौटूँ गाँव वापिस
पहचान सकूँ गाँव को उसके केन्द्र से
हे बरगद के वृक्ष तब्दील न हो जाना
छोटे-मोटे दो, पाँच अथवा दस वृक्षों में!
गाँव की औरतें!
तुम यूँ ही रहना सिसकते
ताकि जब मैं लौटूँ
तुम्हारे जीवन पर लिख सकूँ
कुछ रिपोर्ताज, कुछ संस्मरण
कुछ कवितायें, कुछ कहानियाँ
खीच सकूँ कुछ रंग-बिरंगे चित्र
गाँव की झोपड़ियाँ
तुम रहना यूँ ही टूटी फूटी
ताकि जब मैं लौटूँ
तो अपलोड कर सकूँ तुम्हारे कुछ फोटोज़
अपने फेसबुक पर, ब्लॉग पर
शेयर कर सकूँ बचपन की
उन चिलचिलाती दोपहरियों को
जो बिताये थे मैंने तुम्हारी
रौशनी भरी छाया में
गाँव के बच्चे
तुम यूँ ही खेलते रहना
साइकिल की फटी हुयी टायरों के साथ
ताकि जब मैं लौटूँ
अपने बच्चों को दौड़ा सकूँ
तुम्हारी उन टायरों के साथ
और तालियाँ बजा-बजाकर
इश्वर को दे सकूँ धन्यवाद
जीवन के सारे सपने पूरे करने के लिए
गाँव तुम गाँव ही रहना
ताकि मेरे लौटने की सम्भावना बनी रहे
गाँव तुम गाँव ही रहना
शहर में तब्दील नहीं हो जाना
क्यूंकि वहाँ तो बसते हैं कई षडयंत्रकारी
संस्कृत्यों और स्मृतियों के दलाल व व्यापारी
तुम्हारे रक्तरंजित जलमग्न
शरीर के कंधों पर हो सवार
तुम्हारे लिए एक वैश्विक सपनों को बुनते हुए
बेचते हुए

दोआबा, 2012