भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम अपमानित / पारस अरोड़ा

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:35, 9 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= पारस अरोड़ा |संग्रह= }}‎ {{KKCatKavita‎}}<poem>बारम्बार अपम…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बारम्बार
अपमानित हुआ हूं मैं
अपमानित हुए हैं आप
मेरे प्रियजनों !
हम में से जब भी कोई
आकर गाता है सड़क पर,
मांगा जाता है उस से इजाजतनामा ।
हम ने जब कभी
अंधेरे में
लूटने की मंत्रणा करते
चेहरों पर टार्च का प्रकाश किया
अदृश्य हाथों का निशाना बनी टार्च
हम जब कभी
किसी मंच से
उठाते हैं हमारी आवाज
हम अपराधी घोषित हुए हैं
हम पर
सिर्फ शब्द ही नहीं फैंके गए
फैंकी गई पूरी किताबें
चिपका दिए गए
हमारे शब्दों पर शब्द
ताकि कोई हमारे शब्द
सुने नहीं, पढ़े नहीं, समझे नहीं ।
जिस दिन उन को
सुनाई देंगे हमारे शब्द
फिर वे दूसरों की नहीं सुनेंगे ।
यदि किसी ने पढ़ लिए तो
कितनों को वह पढ़ा देगा
किसी ने समझ लिया उन्हें
तो उसके सामने
कई गर्दनें
अपना भार नहीं सभाल सकेंगे ।


अनुवाद : नीरज दइया