'अंतर की अकलुष स्नेह-वृत्ति कब हुई मृषा!
तन मिलता उससे जिससे मन की बुझी तृषा
सेवा-वंचित यह, आर्य! आपकी खिन्न दशा
मैं दूँगी इन सूखे अंगों में सुरभि बसा
जो असमय कुम्हलाये हैं
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दिन भर तप कर रवि-से लौटोगे, जभी गेह
मैं संध्या-सी देहरी-दीप में भरे स्नेह
अर्पित कर दूँगी यह नामांकित सुमन-देह
मैं बरस, बिखर, जैसे पावस का प्रथम मेंह
अंतर मधु से भर दूँगी'
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