'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं
मौत ये तेरा सितम भूलने वाला है कहीं
हमसे जिस वक़्त ने वो शाह-ए-सुख़न छीन लिया
हमको वो वक़्त-ए-अलम भूलने वाला है कहीं
तिरे अश्क और भी चमकाएँगी यादें उस की
हम को वो दीदा-ए-नम भूलने वाला है कहीं
कभी ज़िन्दाँ में कभी दूर वतन से ऐ दोस्त
जो किया उस ने रक़म भूलने वाला है कहीं
आख़िरी बार उसे देख न पाए 'जालिब'
ये मुक़द्दर का सितम भूलने वाला है कहीं