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'हम ऐसी सब किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं / कांतिमोहन 'सोज़'

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नज़्रे-अकबर

'हम ऐसी सब किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं।'
कि जिनको पढ़के वालिद वल्द को खब्ती समझते हैं।।

इलाही कुछ इन्हें ज़ेरो-ज़बर<ref>ऊँच-नीच</ref> सिखला ये जगवाले
हमारी तंगदस्ती को ज़बरदस्ती<ref>कंगाली को ज़्यादती</ref> समझते हैं।

चल ऐ दिल यहाँ से भी उजड़ना है तेरा लाज़िम
कि शाहे-वक़्त तेरे दश्त को बस्ती समझते हैं।

सितारों से कोई कह दे कि हम धरती के बाशिन्दे
तुम्हारी गर्दिशों<ref>चक्कर</ref> को सिर्फ़ ख़रमस्ती<ref>गदहे का लोटपोट होना</ref> समझते हैं।

अगर्चे इसमें रोटी-दाल की चिन्ता नहीं रहती
तू बच उनसे ग़ुलामी को जो ख़ुशबख़्ती<ref>सौभाग्य</ref> समझते हैं।

यही एक बात मुश्तर्का है अह्ले-ज़र से यारों की
कि हम अहले-जिनूं भी सांप को रस्सी समझते हैं।

वो ग़ाफ़िल थे तो दुश्मन घुस गया मरवा दिया हमको
हमारी जान ज़ालिम किस क़दर सस्ती समझते हैं॥

पहला शेर अकबर इलाहाबादी का है, उसके दूसरे मिसरे में मैंने कुछ शरारत की है, माज़रत के साथ।

शब्दार्थ
<references/>