भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अँधेरा सा क्या था उबलता हुआ / अहमद महफूज़

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:25, 21 मार्च 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद महफूज़ }} {{KKCatGhazal}} <poem> अँधेरा सा क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँधेरा सा क्या था उबलता हुआ
के फिर दिन ढले ही तमाशा हुआ

यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
ये रस्ता है सब मेरा देखा हुआ

न देखो तुम इस नाज़ से आईना
के रह जाए वो मुँह ही तकता हुआ

न जाने पस-ए-कारवाँ कौन था
गया दूर तक मैं भी रोता हुआ

कभी और कश्ती निकालेंगे हम
अभी अपना दरिया है ठहरा हुआ

जहाँ जाओ सर पर यही आसमाँ
ये ज़ालिम कहाँ तक है फैला हुआ