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अँधेरी रात / भवानीप्रसाद मिश्र

अँधेरी रात
पी लेती है जैसे
छाया को
ऐसे पी लेता है
अर्थों को अँधेरा मन

तभी तो आज
हवा फागुन की
डालियों में अटक रही – सी है
और खटक रही- सी है
नयी आयी हुई ऊष्मा
अभी-अभी फूटी हुई कोंपलों को
बहुत दूर
दक्षिण की तरफ़
नीली है पहाड़ की चोटी
और लोटी- लोटी लग रही है
आँगन के पौधे की आत्मा
स्तब्ध इस शाम के
पाँवों पर