भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अँधेरे में / चंद्र रेखा ढडवाल

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:54, 21 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तुमने बिछाया
वह बिछी
तुमने ताना
वह तन गई
सिर नवा कर लिया
जो दिया तुमने
तुमने माँगा
तो लौटाया
बिन हील हुज्जत
लौ नहीं हुई
पर जलती रही
तपी नहीं पर पिघलती रही
तुम्हारे हुक़्मनामों के बावजूद लेकिन
पढ़ती रही अपने हक़ में लिखी गई
किताबों के पन्ने भी
रखती रही उनमें
तितलियों के पर भी
उकेरती रही नखों से
हाशियों में अपने लिए
सूरज / नदी / बेल-बूटे
पंक्ति-बद्ध अक्षरों को
कभी नारों -सा उछालते
कभी झण्डे-सा उठाते
और कभी भाँजते तलवार की तरह
लहुलुहान हथेलियों को
छापती रही कोरे काग़ज़ पर
दीवार पर /धूप और बारिश पर
ज्यूँ का त्यूँ
ताकि आने वाली पीढ़ियों को
अँधेरे में इक चिराग़ मिले